मै कैसे मान लूं माँ अनपढ़ हैं,
दिन-रात एक किया है मुझे पढ़ाने के लिए,
कौन कहे माँ कुछ जानती नहीं,
शुरुआत माँ ने ही की है,
मुझे पहला सबक ( pahla sabak ) सिखाने के लिए,
* * * * *
माँ पढ़ी-लिखी हो या अनपढ़,
पर उसका तजुर्बा बोलता है,
वो अनपढ़ होते हुए भी जान लेती है,
किस के मन में क्या चल रहा है,
माँ का बंद मुख भी ,
दिल में छुपे राज खोलता है,
पढ़-लिखकर आदमी दिमाग से काम लेता है,
पर माँ हमेशा अपने दिल से,
माँ इधर-उधर की शाय़द ज्यादा ना जाने,
वो जानतीं है प्यास तो बुझेगी मीठे जल से,
माँ चेहरे की लकीरों से जान लेती है,
वो पहचान लेती है देखकर,
हमारे कदमों की आहट है,
मै कैसे मान लूं माँ अनपढ़ हैं,
दिन-रात एक किया है मुझे पढ़ाने के लिए,
कौन कहे माँ कुछ जानती नहीं,
शुरुआत माँ ने ही की है,
मुझे पहला सबक ( pahla sabak ) सिखाने के लिए,
* * * * *
वो उंगलियों पर गिनकर बता सकती है,
कब बीज निकालेगा जमीं से,
उथल-पुथल क्यों मची है दिल में,
वो जान लेती है आँखों की नमी से,
माँ है संस्कारों की जननी ,
माँ बिन संस्कार कहाँ,
उसकी छाँव तले गुजरे ये जीवन,
माँ जैसी सरकार कहाँ,
हम हैं पत्ते उस पेड़ के,
जिसकी छाया घनघोर है,
मैं कैसे मान लूं बिन मौसम होती पतझड़ है,
मै कैसे मान लूं माँ अनपढ़ हैं,
दिन-रात एक किया है मुझे पढ़ाने के लिए,
कौन कहे माँ कुछ जानती नहीं,
शुरुआत माँ ने ही की है,
मुझे पहला सबक ( pahla sabak ) सिखाने के लिए,
* * * * *
माँ बातें कर लेती है हर दिन,
अपनी कोख में पलते बच्चे से भी,
वो बिन देखे रिश्ता जोड़ लेती है,
कितने अच्छे से भी,
माँ रोग भी ठीक कर देती है फूंक मारकर,
चिंता -परेशानी हो जाए छू-मंतर,
जब माँ प्यार से देख ले निहारकर,
माँ के जैसी चिकित्सा क्या कहीं और मिलेगी,
उसके प्यार की भिक्षा क्या कहीं और मिलेगी,
माँ के प्यार में ना दिखावा है,
ना कोई मिलावट है,
मै कैसे मान लूं माँ अनपढ़ हैं,
दिन-रात एक किया है मुझे पढ़ाने के लिए,
कौन कहे माँ कुछ जानती नहीं,
शुरुआत माँ ने ही की है,
मुझे पहला सबक ( pahla sabak ) सिखाने के लिए,
* * * * *माँ का पहला सबक ( pahla sabak ) : मेरे जीवन की शुरुआत
माँ किताबी अक्षर चाहे ना भी जानें,
माँ भली-भांति जानती है अक्षर प्यार के,
वो प्यार की नदीयां के जैसे,
जो भर-भरकर हमें प्यार दे,
पढ़-लिखने का अभिमान है क्या,
ये अपना अभिमान माँ को ना दिखा,
माँ जैसी पढ़ाई दुनिया के ,
किसी कोने में नहीं मिलेगी,
माँ के जैसी सीख माँ के ना होने से नहीं मिलेगी,
वो दिन -रात लगी रहती है,
मुझे आगे बढ़ाने के लिए,
मै कैसे मान लूं माँ अनपढ़ हैं,
दिन-रात एक किया है मुझे पढ़ाने के लिए,
कौन कहे माँ कुछ जानती नहीं,
शुरुआत माँ ने ही की है,
मुझे पहला सबक ( pahla sabak ) सिखाने के लिए,
* * * * *हर रोज एक नया सबक,
माँ आज भी सिखाती रहती है ,
मेरे पाँव बने फौलादी,
इसलिए माँ हर रोज मुझे दौड़ाती रहती है,
वो एक -एक दिन गिनती रहती है,
काले निशान लगाकर दीवारों पर,
मुझे बनाकर रखती है वज्र के जैसा,
ये ही सोचकर हर रोज चलाती है,
माँ मुझको तपते अंगारों पर,
नजर है माँ की पारखी,
वो ही है मेरा सच्चा सारथी,
माँ मेरा ज्ञर काम कर देती झटपट है,
मै कैसे मान लूं माँ अनपढ़ हैं,
दिन-रात एक किया है मुझे पढ़ाने के लिए,
कौन कहे माँ कुछ जानती नहीं,
शुरुआत माँ ने ही की है,
मुझे पहला सबक ( pahla sabak ) सिखाने के लिए,
* * * * *
आज मैं पढ़-लिखकर उड़ता हूँ पंख फैलाकर,
ये सब मेरी प्यारी माँ की वजह से,
आज मैं भी प्यार के बदले प्यार लौटाता हूँ,
ये सब मेरी प्यारी माँ की वजह से,
मुझे कहाँ थी इस दुनिया की समझ,
ये दुनिया क्या-क्या रंग दिखाती है,
माँ अच्छे से जानती है मेरी नब्ज,
असली -नकली का भेद मुझे माँ ही बतातीं है,
अपनों की छाँव ना हो सर पर तो,
पाँव जलते हैं धूप में,
जब तपती सड़क है,
मै कैसे मान लूं माँ अनपढ़ हैं,
दिन-रात एक किया है मुझे पढ़ाने के लिए,
कौन कहे माँ कुछ जानती नहीं,
शुरुआत माँ ने ही की है,
मुझे पहला सबक ( pahla sabak ) सिखाने के लिए,
* * * * * *creater -राम सैनी
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