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माँ के पहरे में (maa ke pahre men)

माँ के पहरे में (maa ke pahre men) बचपन : मस्त जिंदगी

 

रोटी में नकल निकालना,
पानी को बार-बार उबालना,
ये सब चलता था माँ के पहरे में (maa ke pahre men),
रोते-रोते स्कूल जाना,
हर रोज कोई ना कोई बहाना,
ये सब चलता था माँ के पहरे में (maa ke pahre men),
* * * * *
माँ रोटी बनाएं गोल-गोल,
मुख से बोले मीठे बोल,
छूकर रोटी को एक बार,
मैं खाने में करता था टाल-मटोल,
रोटी की सुगंध बड़ी प्यारी थी,
उस वक्त एक आदत हमारी थी,
एक बार करना मना है,
छोटी-छोटी बातों पर जिद्द करना,
माँ को बार-बार तंग करना,
फिर आखिर में खाना है,
माँ मेरे पीछे -पीछे घूमती थी,
कभी पंखे से हवा करती ,
कभी मेरा माथा चूमती थी,
बोल-बोल कर मीठे बोल,
मेरे मन को बहलाना,
रोटी में नकल निकालना,
पानी को बार-बार उबालना,
ये सब चलता था माँ के पहरे में (maa ke pahre men),
रोते-रोते स्कूल जाना,
हर रोज कोई ना कोई बहाना,
ये सब चलता था माँ के पहरे में (maa ke pahre men),
* * * * *
तीखा है कभी फीका है,
माँ शायद आपको खाना बनाना नहीं आता,
कभी बोलता था रोटी काली है,
कभी साफ नहीं खाने की थाली हैं,
माँ शायद आपको तो बर्तन चमकाना भी नहीं आता,
हर रोज एक न‌ई शरारत,
स्कूल से आकर जूते घर के अंदर उतारना,
रोटी में नकल निकालना,
पानी को बार-बार उबालना,
ये सब चलता था माँ के पहरे में (maa ke pahre men),
रोते-रोते स्कूल जाना,
हर रोज कोई ना कोई बहाना,
ये सब चलता था माँ के पहरे में (maa ke pahre men),
* * * * *
सर्दी के दिनों में पानी को ,
बार-बार उबालकर पिया करते थे,
ना सर पर कोई बोझ था,
मस्ती करना हर रोज था,
क्या मस्त जीवन ज़िया करते थे,
मिट्टी के चुल्हे पर आग सेंकते थे,
हम सब बैठकर चुल्हे के चारों ओर,
क्या बड़ी -बडी फेंकते थे,
चाय पीना बिस्तर के अंदर,
पानी ऐसे लगाता था सर्दी में,
जैसे हो ठण्डे पानी का समंदर,
हर दिन खेलते थे एक नया खेल,
हर दिन चलता था हवा में सिक्के उछालना,
रोटी में नकल निकालना,
पानी को बार-बार उबालना,
ये सब चलता था माँ के पहरे में (maa ke pahre men),
रोते-रोते स्कूल जाना,
हर रोज कोई ना कोई बहाना,
ये सब चलता था माँ के पहरे में (maa ke pahre men),
* * * * *

माँ के पहरे में (maa ke pahre men) बचपन :  सबका निर्मल मन

 

माँ के पहरे में (maa ke pahre men)
माँ के पहरे में (maa ke pahre men)

ऐसा कोई दिन ना था,
जिस दिन हंसकर स्कूल ग‌ए हों,
ऐसा कोई दिन ना था,
जिस दिन खुद उठकर स्कूल ग‌ए हों,
मास्टर जी की मार से बहुत डरा करते थे,
माँ बोलती थी तेज-तेज चलो,
हम धीरे-धीरे चला करते थे,
एक हाथ में स्कूल का बसता,
एक हाथ से ढीली निक्कर को संभालना,
रोटी में नकल निकालना,
पानी को बार-बार उबालना,
ये सब चलता था माँ के पहरे में (maa ke pahre men),
रोते-रोते स्कूल जाना,
हर रोज कोई ना कोई बहाना,
ये सब चलता था माँ के पहरे में (maa ke pahre men),
* * * * *
हर चीज में गलती ढूंढना,
छोटी-छोटी बातों पर रूठना,
हम चाहते थे की माँ हमें मनाए,
शौर मचाना सामान बिखराना,
माँ देख ना ले उससे नजरें चुराना,
हम चाहते थे की माँ हमें गले लगाए,
रूठने मनाने का खेल हर रोज चला करता था,
प्यार से मान गए तो ठीक नहीं फिर,
माँ के हाथ का पंजा चला करता था,
मन मोह लेता था माँ का आंचल में छुपाना,
कभी गुस्से से फटकारना,
रोटी में नकल निकालना,
पानी को बार-बार उबालना,
ये सब चलता था माँ के पहरे में (maa ke pahre men),
रोते-रोते स्कूल जाना,
हर रोज कोई ना कोई बहाना,
ये सब चलता था माँ के पहरे में (maa ke pahre men),
* * * * *
उस पंजे के निशान को,
माँ छूकर देखती थी बार-बार,
उस मीठे-मीठे दर्द में ,
माँ का छिपा होता था प्यार,
सर्दी के दिनों में माँ नहलाती थी जबरदस्ती,
हम नहाते हुए माँ के हाथों से,
हर पल करते थे मस्ती,
सीखा था जिस के साथ चलना,
माँ ने संभालकर रखा है,
आज भी वो लकड़ी का पालना,
रोटी में नकल निकालना,
पानी को बार-बार उबालना,
ये सब चलता था माँ के पहरे में (maa ke pahre men),
रोते-रोते स्कूल जाना,
हर रोज कोई ना कोई बहाना,
ये सब चलता था माँ के पहरे में (maa ke pahre men),
* * * * *
creater – राम। सैणी
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सुबह -सुबह चारपाई पर चाय आ जाती थी,
आँख खुलने से पहले,

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

सुबह -सुबह चारपाई पर चाय आ जाती थी,
आँख खुलने से पहले,

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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