कच्चे घरों की दास्तान ( kachche gharon ki dastan ),
मुझे सुनाओ बड़ी माँ अपनी जुबान,
सच में मिट्टी की घाघर,कच्ची राहें,
कच्चे थे हम सबके मकान,
एक-दुसरे को चाहते थे दिल से,
सब भोले-भाले थे इंसान,
* * * *
अपने सर को थोड़ा उपर उठा,
पहले मुझे मीठा-शीतल जल पिला,
आ लाली बैठ मेरे पास पालती मारकर,
लेकिन तूं क्या करेगी ये सब जानकर,
मैं बहुत प्यार करती हूँ बड़ी माँ,
अपने बड़े -बजुरगों को,
मुझे जानना है अपनी जड़ों को,
कच्ची मिट्टी के चूल्हो पर खाना बानाना था,
धरती माँ की गोद में बैठकर ही खाना था,
सोने के लिए खुला आंगन था,
चमकते सितारों से भरा था आसमान,
कच्चे घरों की दास्तान ( kachche gharon ki dastan ),
मुझे सुनाओ बड़ी माँ अपनी जुबान,
सच में मिट्टी की घाघर,कच्ची राहें,
कच्चे थे हम सबके मकान,
एक-दुसरे को चाहते थे दिल से,
सब भोले-भाले थे इंसान,
* * * *
पहले लोगों को मिट्टी से जुड़कर रहना,
अच्छा लगता था,
एक-दुसरे से अपने दिल की बातें कहना,
अच्छा लगता था,
कच्चे मकान थे,सीधे-साधे इंसान थे,
बेगाने दुख-सुख को अपना मानते थे,
सबका भला हो,पेट सबका भरा हो,
बस इतना जानते थे,
मेहमानों का आना-जाना,
एक-दुसरे के घर खाना,
एक-एक महीना रहते थे हर घर में मेहमान,
कच्चे घरों की दास्तान ( kachche gharon ki dastan ),
मुझे सुनाओ बड़ी माँ अपनी जुबान,
सच में मिट्टी की घाघर,कच्ची राहें,
कच्चे थे हम सबके मकान,
एक-दुसरे को चाहते थे दिल से,
सब भोले-भाले थे इंसान,
* * * *
थोड़ी सी बरसात में बड़ी माँ,
छत से पानी टपकता होगा,
ठंडी-ठंडी सर्दी का असर
चारों ओर से पड़ता होगा,
लाली तुम को क्या है पता,
सर्दी के दिनों का था अलग ही मजा,
मोटी-मोटी होती थी घर की दीवारें,
रेल के डिब्बे जैसे होते थे लंबे-लंबे घर,
चारपाई के पास मिलती थी एक गर्म अंगीठी,
हाथों को गर्म किया करते थे उसके पास बैठकर,
प्रेम से बोलना प्रेम से रहना,
प्रेम का करते थे गुणगान,
कच्चे घरों की दास्तान ( kachche gharon ki dastan ),
मुझे सुनाओ बड़ी माँ अपनी जुबान,
सच में मिट्टी की घाघर,कच्ची राहें,
कच्चे थे हम सबके मकान,
एक-दुसरे को चाहते थे दिल से,
सब भोले-भाले थे इंसान,
* * * *
कच्चे घरों की दास्तान ( kachche gharon ki dastan ) : बड़ी माँ के मुख से

बरसात के दिनो मे हम अक्सर,
मिट्टी डाला करते थे घर की छत पर,
पानी तो है बड़ी दूर की बात,
हवा भी नहीं जाती थी घर के अंदर,
ना गर्मी-सर्दी का एहसास था,
ना धूप और बरसात का,
घर के बुजुर्गों से होती थी घर की पहचान,
कच्चे घरों की दास्तान ( kachche gharon ki dastan ),
मुझे सुनाओ बड़ी माँ अपनी जुबान,
सच में मिट्टी की घाघर,कच्ची राहें,
कच्चे थे हम सबके मकान,
एक-दुसरे को चाहते थे दिल से,
सब भोले-भाले थे इंसान,
* * * *
बड़ी माँ बहुत मेहनत लगती होगी सफाई में,
कंई दिन गुजर जाते होंगे घर की रंगाई में,
तूं भी जुबान की काली रहेगी,
लाली तूं हमेशा दिमाग से खाली रहेगी,
लाली तुझे क्या बताऊं घर की रंगाई का हाल,
कुछ दीवारें नीले-पीले रंग से रंगी होती थी,
कुछ दीवारों पर होता था रंग लाल,
सारे घर में गोबर से लेप होता था हर सोमवार,
घर का कोना-कोना चमकता था,
सरसों के फूल गिराते थे खुशबूदार,
सितारों के जैसे चमकता था ,
घर का सारा सामान ,
कच्चे घरों की दास्तान ( kachche gharon ki dastan ),
मुझे सुनाओ बड़ी माँ अपनी जुबान,
सच में मिट्टी की घाघर,कच्ची राहें,
कच्चे थे हम सबके मकान,
एक-दुसरे को चाहते थे दिल से,
सब भोले-भाले थे इंसान,
* * * *
पानी पीते थे कच्ची मिट्टी की घाघर का,
ठंडा -मीठा जल ऐसे लगता था,
जैसे हो किसी गहरे सागर का,
लाली तुम्हारी उम्र के बच्चे तो,
सारा दिन खेला करते थे सारी बस्ती में,
हर बच्चा मस्त रहता था अपनी मस्ती में,
रात को घर आना,खा-पीकर सो जाना,
रात को मच्छरों के साथ लड़ाई होती थी ,
एक-एक मच्छर की हाथ से पिटाई होती थी,
गोबर के उपले के धुंए से मच्छरों को भगाते थे,
कुछ बच्चे तो रात-रात भर जगाते थे,
हम सुबह उठकर करते थे पंच स्नान,
कच्चे घरों की दास्तान,
मुझे सुनाओ बड़ी माँ अपनी जुबान,
सच में मिट्टी की घाघर,कच्ची राहें,
कच्चे थे हम सबके मकान,
एक-दुसरे को चाहते थे दिल से,
सब भोले-भाले थे इंसान,
* * * *
creation-राम सैणी
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