babul ka aangan

बाबूल का आंगन ( babul ka aangan ) सूना हो गया

बाबूल का आंगन ( babul ka aangan ) छोड़कर,
नाजों से पली,मेरी लाडली जो ग‌ई है,
ऐसे लगता है जैसे बेटी नहीं गई,
हमारे घर की रौनक ही चली गई है,
सारे घर में चिड़ियों की तरह,
मेरी लाडली चहकती फिरती थी,
शोर मचाती,हवा में दुपट्टा लहराती,
पापा-पापा करती सारे घर में घूमती फिरती थी,
अपने ही मन की मानने वाली मनचली जो गई है,
बाबूल का आंगन छोड़कर,
नाजों से पली,मेरी लाडली जो ग‌ई है,
ऐसे लगता है जैसे बेटी नहीं गई,
हमारे घर की रौनक ही चली गई है,
* * * * *
कभी किताबों पर गुस्सा निकालना,
हर दिन खाने में कमियां निकालना,
हर रोज ये ही खेल चलता था,
अगर कोई सोती हुई को जगादे तो,
वो अपना मुंह फूला लेती थी,
सुबह-सुबह समय पर चाय ना मिले तो,
वो पूरे घर को सर पर उठा लेती थी,
अब तो तन-मन से हमारी बेटी,
उस घर की हो गई है,
बाबूल का आंगन ( babul ka aangan ) छोड़कर,       
नाजों से पली,मेरी लाडली जो ग‌ई है,
ऐसे लगता है जैसे बेटी नहीं गई,
हमारे घर की रौनक ही चली गई है,
* * * * *
खाने बनाने मे नही कोई रूचि,
साफ बोलती है मुंह पर बोलती है,
हमारी बेटी बात करती है सच्ची,
वो किसी और काम को हाथ भी नहीं लगाती थी,
सिवा अपने स्कूल के,
वो अपने कपडों को बार-बार झाडती थी,
उसको परेशानी होती थी धूल से,
वो इस घर से विदा होकर क्या ग‌ई है,
जैसे हमारे चेहरे की चमक ही चली गई है,
बाबूल का आंगन ( babul ka aangan ) छोड़कर,
नाजों से पली,मेरी लाडली जो ग‌ई है,
ऐसे लगता है जैसे बेटी नहीं गई,
हमारे घर की रौनक ही चली गई है,
* * * * *
उसकी माँ की आँखें भर आती हैं,
जब भी देखती है बेटी की तस्वीर को,
बेटी को ससुराल में खुश देखकर,
उसकी माँ की आँखे चमक उठती हैं,
वो धन्यवाद देती है बेटी की तकदीर को,
जिस दिन बेटी की याद आ जाती है,
रात गुजरती है करवटें बदल-बदलकर,
वो हम सबको रुला जाती है,
बड़ी मुश्किल से रखता हूँ,
अपने दिल को संभालकर,
मैं तो बाप हूँ मेरा क्या है,
लेकिन उसकी माँ का हाल बुरा है,
पहले से बिल्कुल बदली हुई है,
बाबूल का आंगन ( babul ka aangan ) छोड़कर,
नाजों से पली,मेरी लाडली जो ग‌ई है,
ऐसे लगता है जैसे बेटी नहीं गई,
हमारे घर की रौनक ही चली गई है,
* * * * *

 बाबूल का आंगन ( babul ka aangan ) सूना हो गया :  बाबुल का गर्व

 

babul ka aangan
babul ka aangan

जब कोई पूछता है बेटी कैसी है,
उसकी आँखों से बह जाती अश्रु धारा है,
हर घड़ी माँ का हाथ बंटाने वाली,
छोटे-मोटी मुश्किल को हवा में उडाने वाली,
बेटी दिल में जो बसी हुई है,
उसका कितना वहाँ आदर है,
ईश्वर जाने कैसा वो नया घर है,
उसके लिए हमारे दिल की खिड़की,
हमेशा खुली हुई है,
बाबूल का आंगन ( babul ka aangan ) छोड़कर,
नाजों से पली,मेरी लाडली जो ग‌ई है,
ऐसे लगता है जैसे बेटी नहीं गई,
हमारे घर की रौनक ही चली गई है,
* * * * *
उसके बचपन के खेल-खिलौने,
आज भी रखें हुए हैं संभालकर,
जब भी बेटी से बातें करने का मन हो,
हम उसके खेल-खिलौने को देख लेते हैं,
एक लकड़ी की पेटी से निकालकर,
उसने बचपन में पहली बार जो कपड़े पहने थे,
उसके कानों में जो छोटे-छोटे गहने थे,
उनको अपने सीने से लगाकर,
मन का बोझ हल्का कर लेते हैं,
हमारी सांसों में प्यार बनकर,
घूली-मिली हुईं हैं,
बाबूल का आंगन ( babul ka aangan ) छोड़कर,
नाजों से पली,मेरी लाडली जो ग‌ई है,
ऐसे लगता है जैसे बेटी नहीं गई,
हमारे घर की रौनक ही चली गई है,
* * * * *
एक लकड़ी का प्यार सा पालना,
एक चिड़ियों का छोटा सा आलणा,
आज भी एक दीवार पर लटकाए हुए हैं,
उसके हाथों की रंग-बिरंगी चूड़ियां,
उसके माथे की सितारों जैसी बिंदियां,
गोल-गोल दो छोटे आइने ,
आज भी एकदम चमकाए हुए हैं,
हम-सबको सताती हुई,शोर मचाती हुई,
वो यादें आज भी हमारे दिल में दबी हुई हैं,
बाबूल का आंगन ( babul ka aangan ) छोड़कर,
नाजों से पली,मेरी लाडली जो ग‌ई है,
ऐसे लगता है जैसे बेटी नहीं गई,
हमारे घर की रौनक ही चली गई है,
* * * * *
राम सैणी
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