माँ तेरे हाथों की बनाई रोटी,
अब कहाँ मिलती है,
खा लेते हैं भूख मिटाने करने के लिए,
पर पेट की भूख ( pate ki bhookh ) कहाँ मिटती है,
* * * * * * *
जब से छूट गई है तेरे हाथों की रोटी माँ,
भूख हमारी आधी हो गई है,
सबके सामने मुस्कराना,
सिर्फ जीने के लिए खाना,
अब तो भूख हमारी दो रोटी पर राजी हो गई है,
माँ तो खिला देती थी दो रोटी ज्यादा,
कभी प्यार से कभी अपनी आँखों की घूर से,
यहाँ रोटी तो बिल्कुल तुम्हारे हाथों जैसी,
हर दिन मिलती है,
पर हकीकत से नाता नहीं दूर-दूर से,
हर चीज यहाँ मिलती है ,
लेकिन वो माँ की ममता कहाँ मिलती है,
माँ तेरे हाथों की बनाई रोटी,
अब कहाँ मिलती है,
खा लेते हैं भूख मिटाने करने के लिए,
पर पेट की भूख ( pate ki bhookh ) कहाँ मिटती है,* * * * * * *
कितनी खाई कितनी बचाई,
अब कौन है पूछने वाला,
इस रोटी में वो स्वाद कहाँ है,
एक रोटी और ले लो ,
ये बोलने वाली वो माँ कहाँ है,
पहले माँ को रोटी बनाता देखकर,
भूख जाग जाती थी,
अब रोटी को देखकर भूख भाग जाती है,
सर झुकाकर खा लेते हैं माँ अब तो,
जैसी जहाँ मिलती है,
माँ तेरे हाथों की बनाई रोटी,
अब कहाँ मिलती है,
खा लेते हैं भूख मिटाने करने के लिए,
पर पेट की भूख ( pate ki bhookh ) कहाँ मिटती है,* * * * * * *
माँ तुम्हारे हाथों की रोटी खाकर,
कितना आनंद मिलता था,
जब खाते थे हम रोटी छिपाकर,
कितना आनंद मिलता था,
माँ तुम्हारे हाथों में तो एक जादू था,
अब वो जादू मैं कहाँ से लाऊं,
जिस आंचल में दौड़कर छिप जाता था,
अब वो आंचल कहाँ से लाऊं,
अपने आंगन जैसी रौनक,
इन आँखों को कहाँ दिखती है,
माँ तेरे हाथों की बनाई रोटी,
अब कहाँ मिलती है,
खा लेते हैं भूख मिटाने करने के लिए,
पर पेट की भूख ( pate ki bhookh ) कहाँ मिटती है,* * * * * * *
पेट की भूख ( pate ki bhookh ) और माँ का प्यार : सच्चा सुख
जब भी बैठता हूँ रोटी खाने के लिए,
माँ रोटी में चेहरा तेरा नजर आए,
काश फिर से मिल जाए वो ही रोटी,
दिल मेरा आनंदित हो जाए,
कीमत क्या है रोटी की,
जो कमाकर खाएं वो जाने,
भूख क्या है पेट की,
जो गिरी हुई रोटी उठाकर खाएं वो जाने,
माँ तुम्हारे हाथों की बनाई रोटी,
हर मोड़ पर कहाँ मिलती है,
माँ तेरे हाथों की बनाई रोटी,
अब कहाँ मिलती है,
खा लेते हैं भूख मिटाने करने के लिए,
पर पेट की भूख ( pate ki bhookh ) कहाँ मिटती है,* * * * * * *
एक रोटी ही नहीं माँ,
तुम्हारे हाथों की हर चीज निराली लगती है,
तुम्हारे मुख की वाणी माँ,
एक शहद की प्याली लगती है,
अब कहाँ मिलती है वो कच्चे चुल्हे की रोटी,
माँ जिसमें तुम्हारा प्यार शामिल होता था,
खाकर वो अनमोल रोटी,
चेहरा फूलों-सा खिलता था,
माँ अब इस रोटी में चुल्हे की राख की,
वो प्यारी सुगंध कहाँ मिलती है ,
माँ तेरे हाथों की बनाई रोटी,
अब कहाँ मिलती है,
खा लेते हैं भूख मिटाने करने के लिए,
पर पेट की भूख ( pate ki bhookh ) कहाँ मिटती है,* * * * * * *
माँ मुझे बहुत सकून मिलता था,
तुम्हारे हाथों से रोटी खाकर,
मेरा जोश दुगुना हो जाता था,
जब तुम हवा में उछालती थी,
मुझे अपनी बाहों में उठाकर,
मुझको हर सुबह होता था,
तुम्हारी प्यारी सी सूरत का दीदार,
शायद ही दुनिया में कोई होगा,
माँ तुम जैसा खुद्दार,
माँ तुम्हारे प्यार की भीख यहाँ,
हर किसी को कहाँ मिलती है,
माँ तेरे हाथों की बनाई रोटी,
अब कहाँ मिलती है,
खा लेते हैं भूख मिटाने करने के लिए,
पर पेट की भूख ( pate ki bhookh ) कहाँ मिटती है,* * * * * * *
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