maa mujhe fir se thaam lo

माँ मुझे फिर से थाम लो ( maa mujhe fir se thaam lo )

 

माँ बहुत कठीन है जीवन की डगर,
मुझे फिर से अपनी बाहों में पकड़,
माँ मुझे फिर से थाम लो ( maa mujhe fir se thaam lo ),
मैं बच्चा बनना चाहता हूँ वो ही बचपन का,
मैं जब तक हो ना जाऊंगा वर्ष पचपन का,
* * * * * *
माँ हंसते-हंसते मैं चल रहा हूँ,
हर रोज सीखते-सीखते मैं निखर रहा हूँ,
फिर भी कभी-कभी लगती है,
ना जाने क्यों जीवन की कठिन डगर,
मुझे खुद पर भरोसा हद से ज्यादा है,
तुम से मेरा एक वादा है,
मैं नाम लेकर तुम्हारा बार-बार,
एक दिन कर लूंगा पार,
जीवन का विशाल समंदर,
कभी-कभी कुछ मुश्किलें आकर,
सब-कुछ कर देती हैं इधर-उधर,
मैं उन से लडना सिख गया हूँ,
मैं अब हल ढूंढ लेता हूँ हर मुश्किल का,
माँ बहुत कठीन है जीवन की डगर,
मुझे फिर से अपनी बाहों में पकड़,
माँ मुझे फिर से थाम लो ( maa mujhe fir se thaam lo ),
मैं बच्चा बनना चाहता हूँ वो ही बचपन का,
मैं जब तक हो ना जाऊंगा वर्ष पचपन का,
* * * * * *
तुम्हारे दिखाए रास्ते पर चलकर,
अब मुश्किलों का शोर डराता नहीं है,
मुझे पहले की तरह,
अब मुश्किलों को देखकर रूकना नहीं आता है,
मुझे पहले की तरह,
अब सामने मुश्किलों का बवंडर देखकर,
संतुलन बिगड़ता नहीं मेरे तन-मन का,
माँ बहुत कठीन है जीवन की डगर,
मुझे फिर से अपनी बाहों में पकड़,
माँ मुझे फिर से थाम लो ( maa mujhe fir se thaam lo),
मैं बच्चा बनना चाहता हूँ वो ही बचपन का,
मैं जब तक हो ना जाऊंगा वर्ष पचपन का,
* * * * * *
काश लौटकर आ जाए माँ,
बचपन का वो ही मस्ती भरा माहोल,
हर पल करते थे शैतानी,
हर घड़ी खेलते थे एक नया खेल,
कब गुजर गया वक्त हंसते-गाते,
गाँव की गलियों की मिट्टी में नहाते-नहाते,
कांटा चुभने का ना डर था पाँव में,
दोपहर गुज़रती थी पीपल की छाँव में,
कभी शीतल हवा का आंनद लेते थे,
कभी सूरज की तपन का,
माँ बहुत कठीन है जीवन की डगर,
मुझे फिर से अपनी बाहों में पकड़,
माँ मुझे फिर से थाम लो ( maa mujhe fir se thaam lo ),
मैं बच्चा बनना चाहता हूँ वो ही बचपन का,
मैं जब तक हो ना जाऊंगा वर्ष पचपन का,
* * * * * *

माँ मुझे फिर से थाम लो ( maa mujhe fir se thaam lo )  : अपनी बाहों में
maa mujhe fir se thaam lo
maa mujhe fir se thaam lo

माँ ढूंढ़ती रहती थी हमे खेत-खलिहान में,
हम नंगे पाँव दौडा करते थे,
एक ढीली-ढाली सी निक्कर पहनें,
अपने से बड़ी सफेद बनियान में,
कभी कपड़े कभी चारपाई छुपाना,
सबके घर बिन बुलाए खाना,
कच्चे बेर तोड़कर खाया करते थे,
आग बरसाती शिखर दोपहर में,
आज के जैसे नहीं जाते थे हर रोज शहर में,
हम हर दिन आनंद लेते थे,
ठंडी-ठंडी बहती पवन का,
माँ बहुत कठीन है जीवन की डगर,
मुझे फिर से अपनी बाहों में पकड़,
माँ मुझे फिर से थाम लो ( maa mujhe fir se thaam lo),
मैं बच्चा बनना चाहता हूँ वो ही बचपन का,
मैं जब तक हो ना जाऊंगा वर्ष पचपन का,
* * * * * *
हर पड़ाव का अलग ही आनंद है,
उम्र के साथ बदलती रहती है,
हम-सब की पसंद नापसंद है,
जिम्मेदारियां सर पर जब बढ़ने लगती है,
चेहरे पर लकीरें जब पड़ने लगती हैं,
मैं हिसाब रखने लगा हूँ माँ,
दिल की हर धड़कन का,
माँ बहुत कठीन है जीवन की डगर,
मुझे फिर से अपनी बाहों में पकड़,
माँ मुझे फिर से थाम लो ( maa mujhe fir se thaam lo ),
मैं बच्चा बनना चाहता हूँ वो ही बचपन का,
मैं जब तक हो ना जाऊंगा वर्ष पचपन का,
* * * * * *
याद आने लगते है वो ही बचपन के दिन,
नींद आँखों से हो जाती है छू-मंतर,
जब बचपन और बुढ़ापे में,
हमे लगता नहीं कोई अंतर,
फिर रातें गुज़रती है तारे गिन-गिन,
बचपन में जवानी सही लगती है,
हर नादानी हमें सही लगती है,
बिना रोक-टोक चलता है जीवन,
उम्र पचपन में शौंक बचपन के अच्छे लगते हैं,
हर बात पर जिद्द करना,
खुश को सही सिद्ध करना,
इन आदतों से हम बिल्कुल बच्चे लगते हैं ,
लगाव हो जाता है हद से ज्यादा धन का,
माँ बहुत कठीन है जीवन की डगर,
मुझे फिर से अपनी बाहों में पकड़,
माँ मुझे फिर से थाम लो ( maa mujhe fir se thaam lo),
मैं बच्चा बनना चाहता हूँ वो ही बचपन का,
मैं जब तक हो ना जाऊंगा वर्ष पचपन का,
* * * * * *
creation-राम सैणी
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